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रामत्व

*रामत्व है क्या* ???

*काजु हमार तासु हित होई*

*मेरा काम भी बने और अगले की भी हानि न हो*,
यदि कोई वैरी भी है तो उसकी भी हित की चिंता ही रामत्व है।
और हमलोग?
हमलोग प्रायः यहीं पर चूक जाते हैं।
अपने हित के लिए,
अपने काम बनाने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि मेरे कारण किसी को क्षति हो रही है।
हम अपने लक्ष्य प्राप्ति के चक्कर में कितने के सद् आकांक्षाओं को भी कुचल देते हैं।
जरा उस दृश्य को अपने मन में कल्पना करें कि जब अंगद श्रीराम जी के आज्ञा से दूत बनकर लंका में जाने लगे...
बालितनय बुधि बल धामा। लंका जाहु तात मम कामा।।
अर्थात् अंगद श्रीराम जी के काम से जा रहे हैं, अतः उन्हें चाहिए कि जो श्रीराम काज में बाधक बने उसे शत्रु भाव से उसके साथ व्यवहार करना है। और इस दौरान उसकी अर्थात् दूसरे पक्ष की चिंता नहीं करना चाहिए पर श्रीराम जी कहते हैं कि नहीं,
हमें अपने हित साधने के चक्कर में इतना ध्यान रखना ही चाहिए कि यदि संभव हो तो शत्रु की भी भलाई सोचें।
क्योंकि वास्तव में न तो कोई किसी का शत्रु है और न मित्र बल्कि कुछ कारण, परिस्थिति हैं जो हमें वहां खड़ा कर देता है कि प्रतीत होता है कि हम एक दूसरे के शत्रु हैं।
जटायु श्रीराम जी के मुख से सीता हरण करने वाला पापी रावण को मुक्त होकर उनके लोक में आना सुनकर ,जहां जाना बड़े बड़े ऋषि मुनियों के लिए भी कठिन है, अत्यंत आश्चर्य में पड़ गए...
सीता हरन तात जनि कहेहु पिता सन जाई।
जौं मैं राम त *कुल सहित कहिहि दसानन आई*।।
ऐसे ऐसे पापी जो गाय ,भैंस, गदहे, मनुष्य, बंदर आदि को खा जाते हैं वे वैकुंठ जाएंगे??
ये तो बिल्कुल वेद शास्त्र के नियमों (जो जस करइ सो तस फल चाखा)के विरुद्ध है कि नहीं???
पर श्रीराम मत कहता है कि केवल कर्म नहीं बल्कि उसकी परिस्थितियों पर भी ध्यान दीजिए कि विश्रवा मुनि के संतान असुर क्यों हुए?
राजा सुकेतु की पुत्री ताड़का ऐसी दुष्टा क्यों हुई???
हां ये सत्य है कि कर्मफल मिले पर उसकी स्थिति परिस्थिति पर भी विचार करते हुए...
एकहि बान प्रान हरी लीन्हा।
और अब ये दीन कहां जाएगी इस पर विचार करते हुए...
दीन जानि तेही निज पद दीन्हा।।
मेरे राम जी की यही विशेषता *रामत्व* प्रदान करता है....
सभी मित्रों को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
सादर प्रणाम
जय जय सीताराम जी

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